Tuesday, 17 June 2014

वही दोपहरी गांव की

कुछ मेरा मन मतवाला था
ऊपर से साथ तुम्हारा था
तुम झाड़ी में छुप जाती थीं
मैं दूर-दूर तक जाता था
कहीं पारिजात की खुशबू थी
कहीं लौकिक गंध तुम्हारी थी
कैसे भूलूं उस बचपन को
कैसे छवि भूलूं गांव की
याद आ रही है हमको अब
वही दोपहरी गांव की

कहीं  गूलर लाल टपकते थे
कहीं महुआ झर-झर झरते थे
कहीं खुली धूप तड़पाती थी
कहीं ठंठी पीपल छांव थी
याद आ रही है हमको अब
वही दोपहरी गांव की

जब छोटे-छोट थैलों में हम
कच्चे आम बीनते थे
एक आम जब गिरता था
हम हिरन चौकड़ी भरते थे
कैसे भूलूं बीते लम्हे 
कैसे भूलूं रितु  आम की
याद आ रही है हमको अब
वही दोपहरी गांव की

Sunday, 15 June 2014

सारे ग्रंथों का सार हो तुम


तुम  ईश्वर की संरचना हो
जागती आंखों का सपना हो
जीवन के सारे सुख तुमसे
तुम सबसे सुंदर रचना हो
फीके हैं वेद-पुराण सभी
फीकी हैं सारी कविताएं
सारे ग्रंथों का सार हो तुम
तुम से हैं सारी रचनाएं
तुम हो तो मेरा जीवन है
तुमसे ही मेरा गठबंधन है
तुम सच में शुद्ध कल्पना हो
जागती आंखों का सपना हो

तुम प्यार की एक परिभाषा हो
प्यासे नैनों की भाषा हो
तुम दिल में रहती हो हरदम
तुमसे जनमों का नाता है
तुम मस्जिद हो तुम गुरुद्वारा
तुम मंदिर जैसी पावन हो
तुम मिलीं तो जीवन धन्य हुआ
तुम जीवन की अभिलाषा हो
तुम स्वाति की जब बूंद बनीं
मैं सीपी बनकर तृप्त हुआ
तुम बिन मेरा अस्तित्व नहीं
तुम ही जीवन की आशा हो

मां


परिपूर्ण तुम्हीं, सम्पूर्ण तुम्हीं
तुम पूर्ण सृष्टि की सुंदरता
अद्भुत खुशबू बसती तुममें
वाणी से अमृत है झरता
कितनी सुंदर कितनी शीतल
वट वृक्ष तुम्हीं बन जाती हो
जब सारे रस्ते बंद मिलें
तब नजर तुम्हीं बस आती हो।।