कुछ मेरा मन मतवाला था
ऊपर से साथ तुम्हारा था
तुम झाड़ी में छुप जाती थीं
मैं दूर-दूर तक जाता था
कहीं पारिजात की खुशबू थी
कहीं लौकिक गंध तुम्हारी थी
कैसे भूलूं उस बचपन को
कैसे छवि भूलूं गांव की
याद आ रही है हमको अब
वही दोपहरी गांव की
कहीं गूलर लाल टपकते थे
कहीं महुआ झर-झर झरते थे
कहीं खुली धूप तड़पाती थी
कहीं ठंठी पीपल छांव थी
याद आ रही है हमको अब
वही दोपहरी गांव की
जब छोटे-छोट थैलों में हम
कच्चे आम बीनते थे
एक आम जब गिरता था
हम हिरन चौकड़ी भरते थे
कैसे भूलूं बीते लम्हे
कैसे भूलूं रितु आम की
याद आ रही है हमको अब
वही दोपहरी गांव की