Tuesday 17 June 2014

वही दोपहरी गांव की

कुछ मेरा मन मतवाला था
ऊपर से साथ तुम्हारा था
तुम झाड़ी में छुप जाती थीं
मैं दूर-दूर तक जाता था
कहीं पारिजात की खुशबू थी
कहीं लौकिक गंध तुम्हारी थी
कैसे भूलूं उस बचपन को
कैसे छवि भूलूं गांव की
याद आ रही है हमको अब
वही दोपहरी गांव की

कहीं  गूलर लाल टपकते थे
कहीं महुआ झर-झर झरते थे
कहीं खुली धूप तड़पाती थी
कहीं ठंठी पीपल छांव थी
याद आ रही है हमको अब
वही दोपहरी गांव की

जब छोटे-छोट थैलों में हम
कच्चे आम बीनते थे
एक आम जब गिरता था
हम हिरन चौकड़ी भरते थे
कैसे भूलूं बीते लम्हे 
कैसे भूलूं रितु  आम की
याद आ रही है हमको अब
वही दोपहरी गांव की

2 comments:

  1. बीते दिनों की यादें आज भी खुशनुमा एहसास दे जाती हैं और हो रहे बदलाव को देख कर कभी कभी दर्द भी देती हैं।

    सादर

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    1. सही कहा आपने यशवंत जी।।।

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